तेरी आँखों को अगर झील कहू तो सोचता हूँ,
क्या झील कभी इतनी गहरी हो सकती है?
तेरी जुल्फों को अगर घटा कहूं तो सोंचता हूँ,
क्या घटा कभी इतनी काली हो सकती है?
तेरे गालों को अगर गुलाब कहूं तो सोंचता हूँ,
क्या गुलाब कभी इतना कोमल हो सकता है ?
और क्या तारीफ़ करूँ मै तेरे हुस्न की, मुझे तो पता है,
तेरी हर एक अदा किसी अदा से निराली हो सकती है...
क्या झील कभी इतनी गहरी हो सकती है?
तेरी जुल्फों को अगर घटा कहूं तो सोंचता हूँ,
क्या घटा कभी इतनी काली हो सकती है?
तेरे गालों को अगर गुलाब कहूं तो सोंचता हूँ,
क्या गुलाब कभी इतना कोमल हो सकता है ?
और क्या तारीफ़ करूँ मै तेरे हुस्न की, मुझे तो पता है,
तेरी हर एक अदा किसी अदा से निराली हो सकती है...